गुरुवार, 5 जुलाई 2012

मंगलवार, 27 मार्च 2012

भजन


भजन-मदन गोपाल शरण तेरी आयो..........



रविवार, 12 जून 2011

श्रीनाथजी का स्वरूप


श्रीनाथजी निकुंज के द्वार पर स्थित भगवान् श्रीकृष्ण का साक्षात स्वरूप हैं। वह अपना वाम (बायाँ) श्रीहस्त ऊपर उठाकर अपने भक्तों को अपने पास बुला रहे हैं मानो कह रहे हों , ''मेरे परम प्रिय! हजारों वर्षो से तुम मुझसे बिछुड़ गए हो, मुझे तुम्हारे बिना सुहाता नहीं है। आओ मेरे निकट आओ और लीला का रसपान करो। श्रीनाथजी द्वारा वाम श्रीहस्त उठाकर भक्तों को पुकारने का तात्पर्य है कि प्रभु अपने पुष्टि भक्तों की पात्रता, योग्यता-अयोग्यता का विचार नहीं करते और न उनसे भगवत्प्राप्ति के शास्त्रों में कहे गए साधनों की अपेक्षा ही करते हैं। वे तो निःसाधन जनों पर कृपा कर उन्हे टेर रहे है। श्रीहस्त ऊँचा उठाकर यह भी संकेत कर रहे हैं कि जिस लीला रस का पान करने के लिए वे भक्तों को आमंत्रित कर रहे हैं, वह सांसारिक विषयों के लौकिक आनन्द और ब्रह्मानन्द से ऊपर उठाकर भक्त को भजनानन्द में मग्न करना चाहते हैं। परम प्रभु श्रीनाथजी का स्वरूप दिव्य सौन्दर्य का भंडार और माधुर्य की निधि है। मधुराधिपति श्रीनाथजी का सब कुछ मधुर ही मधुर है। अपने सौन्दर्य एवं माधुर्य से भक्तों को वे ऐसा आकर्षित कर लेते हैं कि भक्त प्रपंच को भूलकर देह-गेह-संबंधीजन-जगत् सभी को भुलाकर प्रभु में ही रम जाता है, उन्ही में पूरी तरह निरूद्ध हो जाता है। यही तो हैं प्रभु का भक्तों के मन को अपनी मुट्ठी बाँधना। वास्तव में, प्रभु अपने भक्तों के मन को मुट्ठी में कैद नहीं करते वे तो प्रभु-प्रेम से भरे भक्त-मन रूपी बहुमूल्य रत्नों को अपनी मुट्ठी में सहेज कर रखते हैं। इसी कारण, श्रीनाथजी दक्षिण (दाहिने) श्रीहस्त की मुट्ठी बाँधकर अपनी कटि पर रखकर निश्चिन्त खड़े हैं। दाहिना श्रीहस्त प्रभु की अनुकूलता का द्योतक है। इससे श्रीनाथजी की चातुरी प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती है। प्रभु श्रीनाथजी नृत्य की मुद्रा में खड़े हैं। यह आत्मस्वरूप गोपियों के साथ प्रभु के आत्मरमण की, रासलीला की भावनीय मुद्रा है। रासरस ही परम रस है, परम फल है। प्रभु भक्तों को वही देना चाहते हैं।

श्रीनाथजी के मस्तक पर जूड़ा है, मानों श्री स्वामिनीजी ने प्रभु के केश सँवार कर जूड़े के रूप में बाँध दिए है। कर्ण और नासिका में माता यशोदा के द्वारा कर्ण-छेदन-संस्कार के समय करवाए गए छेद हैं। आप श्रीकंठ में एक पतली सी माला 'कंठसिरी' धारण किए हुए है। कटि पर प्रभु ने 'तनिया' (छोटा वस्त्र) धारण कर रखा है। घुटने से नीचे तक लटकने वाली 'तनमाला' भी प्रभु ने धारण कर रखी है। श्रीनाथजी के श्रीहस्त में कड़े है, जिन्हे मानों श्रीस्वामिनीजी ने प्रेमपूर्वक पहनाया है। निकुंजनायक श्री नाथजी का यह स्वरूप किशोरावस्था का है। प्रभु श्री कृष्ण श्यामवर्ण हैं। श्रृंगार रस का वर्ण श्याम ही हैं। प्रभु श्रीनाथजी तो श्रृंगार रस और परम प्रेम का स्वरूप हैं। उनके स्वरूप की एक विशेषता यह है कि भक्तों के प्रति उमड़ने वाले अनुराग से श्यामता मे लालिमा के भी दर्शन होते हैं। इसी कारण श्रीनाथजी का स्वरूप लालिमायुक्त श्यामवर्ण का है। प्रभु की दृष्टि सम्मुख और किचिंत नीचे की ओर है क्योंकि वह शरणागत भक्तो पर स्नेहमयी कृपा दृष्टि डाल रहे हैं।

श्रीनाथजी की यह कृपा दृष्टि ही भक्तों का सर्वस्व है।


बुधवार, 23 मार्च 2011

श्रीनिम्बार्काचार्य



वैष्णव भक्ति में चार सम्प्रदाय हुए हैं, कुमार, श्री, रुद्र और ब्रह्म जिनके प्रवर्त्तक क्रमश निंबार्काचार्य, रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य और माध्वाचार्य हैं। निंबार्काचार्य ने द्वैताद्वैत, रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैत, वल्लभाचार्य ने शुद्धाद्वैत और माध्वाचार्य द्वैत की संकल्पना प्रदान की। निंबार्काचार्य इन सभी वैश्न्वाचार्यों में इसलिए विशिष्ट हैं क्योंकि इनके द्वैताद्वैत में सभी संप्रदायों का समन्वय है। यह सबसे प्राचीन वैष्णव सम्प्रदाय माना जाता है। इस सम्प्रदाय का दूसरा नाम हंस सम्प्रदाय भी है।

निंबार्काचार्य का वास्तविक नाम नियमानन्द था। इन्हें भगवान के सुदर्शन चक्र का अवतार माना जाता है। इनका जन्म लगभग पाँच हज़ार वर्ष पूर्व वैदूर्यपत्तन,महाराष्ट्र में हुआ था। ऐसा प्रसिद्ध है कि इनके उपनयन के समय स्वयं देवर्षि नारद ने इन्हें श्री गोपाल-मन्त्र की दीक्षा प्रदान की थी तथा श्रीकृष्णोपासना का उपदेश दिया था। इनके गुरु देवर्षि नारद थे तथा नारद के गुरु श्रीसनकादि थे। इसलिए इनका सम्प्रदाय सनकादि सम्प्रदाय के नाम से भी प्रसिद्ध है।

निंबार्काचार्य अर्थात नियमानन्द यमुना तटवर्ती ध्रुव क्षेत्र में निवास किया करते थे। एक दिन एक दण्डी संन्यासी इनके आश्रम पर आए। उनके साथ वे भगवद चर्चा में इतने तल्लीन हो गए कि सूर्यास्त हो गया। उन्होंने अपने अतिथि संन्यासी से भोजन करने का निवेदन किया। दण्डी संन्यासी प्राय: सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करते, इसलिए उन्होंने भोजन करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। अतिथि के बिना भोजन किए लौट जाने की बात पर नियमानन्द को बहुत पश्चाताप हुआ। भगवान ने भक्त की रक्षा के लिए प्रकृति के नियमों में परिवर्तन की अद्भुत लीला रची। सभी लोगों ने आश्चर्यचकित होकर देखा कि इनके आश्रम के निकट नीम के ऊपर सूर्यदेव प्रकाशित हो गए हैं। भगवान की अपार करुणा का प्रत्यक्ष दर्शन करके आचार्य का हृदय गदगद हो गया। उन्होंने अपने अतिथि को भोजन कराया। अतिथि के भोजनोपरान्त ही सूर्यास्त हुआ। लोगों ने इस अद्भुत लीला को श्रीनिम्बार्काचार्य की सिद्धि के रूप में देखा,तभी से उनका नाम निम्बार्क प्रसिद्ध हुआ, ‘निम्ब’ अर्थात नीम और ‘अर्क’ अर्थात सूर्य।

वर्तमान में संप्रदाय के आचार्य जगदगुरु श्री श्री राधा सर्वेश्वरशरण देवाचार्य 'श्रीजी महाराज' हैं जो राजस्थान के अजमेर, किशनगढ़ में विराजमान हैं। सम्प्रदाय का प्रधान ग्रन्थ श्रीमद्भागवत है।

राधे कृष्ण राधे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण राधे राधे।
राधे श्याम राधे श्याम, श्याम श्याम राधे राधे ।।

गुरुवार, 13 जनवरी 2011

श्रीराधाकुंड



श्रीराधाकुण्ड वह कुण्ड है जहाँ श्रीमती राधारानी सखियों के संग जलविहार और स्नान करती हैं। यह श्रीयुगल दिव्य लीला विलास व केलि–क्रीड़ा का स्थल है। वराह पुराण में श्रीराधाकुण्ड का उल्लेख समस्त पापों का क्षय करने वाले और प्रेम स्वरूप कैवल्य प्रदान करने वाले कुण्ड के रूप में किया गया है। पद्म पुराण के अनुसार, श्रीकृष्ण को राधाजी जितना ही राधाकुण्ड प्रिय है। श्रील रूप गोस्वामी ने अपने ‘श्रीउपदेशामृत’ में कहा है कि व्रज के सभी स्थलों में श्रीराधाकुण्ड सबसे श्रेष्ठ है, और उसका कारण यह है कि यह कृष्ण प्रेम के अमृत रस से परिपूरित है। श्रीयुगल की दिव्यलीला व केलि-क्रीड़ा के कारण इसे नंदगाँव, बरसाना, वृंदावन और गोवर्धन से भी श्रेष्ठ भजन स्थली बताया गया है। श्रीरघुनाथदास गोस्वामी यहाँ तक कहते हैं कि ब्रजमंडल की अन्यान्य लीलास्थलियों की तो बात ही क्या, रसमयी रहस्यमयी केलि–क्रीड़ा के स्थल परम सुरम्य श्री वृन्दावन और श्रीगोवर्धन भी श्रीमुकुन्द के प्राणों से भी अधिक प्रिय श्रीराधाकुण्ड की महिमा के अंश के अंश मात्र भी बराबरी नहीं कर सकते। श्रीचैतन्य महाप्रभुजी ने स्वयं इस परम भक्ति स्थल का प्रकाशन किया था। श्रीराधाकुंड की परम महिमा के स्वरूप ही अनेक संतों और गोस्वामियों ने अपनी भजन कुटी इसके पास बनायीं।

श्रीराधाकुण्ड, दिल्ली से करीब 150, वृंदावन से 22 और मथुरा से 26 किमी दूर गिरिराज गोवर्धन की उत्तर दिशा में स्थित है। इसी कुण्ड के साथ श्याम कुण्ड है। दोनों श्रीराधा‌-कृष्ण के स्वरूप की तरह अभिन्नता के साथ आपस में जुड़े हुए हैं। राधाकुंड और श्यामकुंड श्रीगिरिराज गोवर्धन रूपी मयूर के नेत्र के समान बताए गए हैं।

यह कुण्ड आरिट गाँव में है। यहीं श्रीकृष्ण ने अरिष्टासुर का वध किया था जो साँड का रूप धारण करके उन्हें मारने आया था । इस गाँव का नाम आरिट उसी असुर के नाम पर ही है। अरिष्टासुर के वध के पश्चात जब रात्रिबेला में जगतपति श्रीकृष्ण प्रियाजी और सखियों से मिलन के लिए गए तो श्रीप्रियाजी परिहास करते हुए ठाकुरजी से बोलीं की आज आप पर गौ (वृष)हत्या का पाप लगा हुआ है, पहले आप पृथ्वी के समस्त तीर्थों में स्नान करके पवित्र होकर आएं। सखियों ने भी प्रियाजी का अनुमोदन किया। ठाकुरजी ने उसी समय अपनी एड़ी की चोट से एक विशाल कुंड का निर्माण कर पृथ्वी के सभी तीर्थों का आह्वान किया। तुरंत कुंड निर्मल जल से पूरित हो गया। ठाकुरजी ने उसमें स्नान करके स्वयं को पवित्र किया। किन्तु मानिनी राधाजी ने अपने कंकण से उस कुंड से भी सुंदर कुंड का निर्माण किया लेकिन उसमें एक बूंद भी जल नहीं निकला। लीलाधारी कृष्ण ने हँस कर अपने कुंड से जल लेने के लिए कहा किन्तु राधाजी सखियों संग घड़े लेकर मानसी गंगा जाने लगीं। श्रीक़ृष्ण ने तीर्थों से श्रीराधिका जी को मनाने के लिए कहा। राधाजी ने सहर्ष तीर्थों को कुंड में प्रवेश करने की अनुमति दे दी। श्रीप्रिय-प्रियाजी ने सखियों के साथ सप्रसन्न दोनों, राधाकुंड और श्यामकुंड में स्नान और जलविहार किया।

दोनों कुंडो का प्रकाश कार्तिक माह की कृष्णाष्टमी, दीपावली के दिन हुआ था इसलिए हर वर्ष इस दिन अर्द्धरात्रि में लाखों भक्त यहाँ स्नान करते हैं। कहते हैं कि इस दिन स्नान करने से सच्चे भक्तों को श्रीश्यामा-श्याम की प्रेमाभक्ति प्राप्त होती है और राधाकुंड में अखिल ब्रह्मांड और व्रजमंडल के दर्शन होते हैं।
जय जय श्रीराधेश्याम!!!!

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

श्री गिरिराज गोवर्धन



मथुरा नगर के पश्चिम में लगभग 21 किलोमीटर की दूरी पर श्री गिरिराज गोवर्धन विराजमान हैं। गिरिराज 4 या 5 मील तक फैले हुए हैं। अपने प्राकट्य के समय यह 80 किलोमीटर लम्बे, 20 किलोमीटर ऊँचे और 50 किलोमीटर चौड़े थे। ऐसा कहा जाता है कि गोवर्धन पर्वत की छाया कभी यमुना जी पर पड़ती थी। श्री गिरिराज गोवर्धन भगवान कृष्ण के काल का एक मात्र जीवंत चिन्ह हैं।

गर्ग संहिता में गोवर्धन पर्वत को वृन्दावन की गोद में निवास करने वाला गोलोक का मुकुटमणि कहा गया है।

पौराणिक मान्यता के अनुसार, श्री गिरिराजजी सतयुग में प्रकट हुए थे। एक बार पुलस्त्य ऋषि भ्रमण करते हुए द्रोणाचल के पास आए। उनके पुत्र गोवर्धन के सौन्दर्य को देखकर उनके मन में विचार आया कि क्यों ना उन्हें काशी ले जाया जाए। काशी में गंगा तो है लेकिन कोई पर्वत नहीं है। ऐसे रमणीय पर्वत पर तपस्या करना मोक्षकारी और अधिक आनंदकारी रहेगा। पुलस्त्य ऋषि ने गोवर्धन के पिता द्रोणाचल पर्वत से अपने पुत्र गोवर्धन को देने के लिए आग्रह किया। द्रोणाचल अपने पुत्र से बहुत प्रेम करते थे परंतु ऋषिवर को क्रोधित भी नहीं करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने उनके समक्ष एक शर्त रखी कि अगर अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने गिरिराज को कहीं रख दिया तो दोबारा नहीं उठा पाएँगे। पुलस्त्य ऋषि ने यह शर्त स्वीकार कर ली। अपनी यात्रा के दौरान जब वे ब्रज क्षेत्र से गुज़रे तो नित्य कर्म के उपरांत गोवर्धन जी को उठाने का उनका प्रयास विफल हो गया। क्रोधित होकर उन्होंने श्राप दिया कि गोवर्धन पर्वत प्रतिदिन तिल के बराबर पृथ्वी में धंसता जाएगा और कलियुग में पूर्णतः लुप्त हो जाएगा। इसी श्रापवश अब गिरिराज गोवर्धन का आकार अत्यंत छोटा हो चुका है।

एक अन्य मान्यता के अनुसार, हनुमानजी लंका पर आक्रमण के प्रयोजन से सेतु निर्माण के लिए विराट गोवर्धन पर्वत लेकर ब्रज क्षेत्र से गुजर रहे थे तभी उन्हें देव वाणी द्वारा संदेश मिला कि सेतु बंध का कार्य पूर्ण हो गया है। यह सुनकर हनुमानजी गोवर्धन पर्वत को ब्रज में स्थापित कर पुन: दक्षिण की ओर लौट गए।

भगवान कृष्ण के काल में श्रीगिरिराज अत्यन्त हरे-भरे रमणीय पर्वत और प्राकृतिक संपदा से भरपूर थे। ब्रजवासी उनके निकट अपनी गायें चराया करते थे और उनके प्रति गहन श्रद्धा रखते थे। भगवान श्री कृष्ण ने जब ब्रज में इन्द्र की परम्परागत पूजा बन्द कर गोवर्धन की पूजा प्रचलित की तो इन्द्र के प्रकोप से ब्रज में भयंकर वर्षा हुई। सम्पूर्ण ब्रज जल मग्न हो गया। भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अंगुलि पर धारण करके समस्त ब्रजवासियों की रक्षा की। जब इन्द्र को पता लगा कि श्रीकृष्ण कोई और नहीं बल्कि भगवान विष्णु के साक्षात अंश और पूर्ण पुरूषोत्तम नारायण हैं तो उन्होंने भगवान से क्षमा माँगी। इस अलौकिक घटना का उल्लेख पुराणादि धार्मिक ग्रन्थों और कलाकृतियों में होता रहा है। संतों ने भगवान की इस लीला का अत्यंत भावपूर्ण और भक्तिमय ढंग से वर्णन किया है। इस पौराणिक घटना के बाद से ही दीपावली के अगले दिन श्रीगोवर्धन पूजा की जाने लगी। इस दिन अन्नकूट तैयार किया जाता है।

श्रीगोवर्धन परिक्रमा का अत्यंत आध्यात्मिक महत्व है। पूरी परिक्रमा 7 कोस अर्थात लगभग 21 किलोमीटर है। परिक्रमा के लिए समूचे विश्व से भक्त आते हैं। प्रत्येक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी से पूर्णिमा तक लाखों भक्त सप्तकोसी परिक्रमा करते हैं। गुरु पूर्णिमा पर परिक्रमा लगाने का विशेष महत्व है। वैसे मन में भक्ति हो तो परिक्रमा कभी भी लगाई जा सकती है। अपने सामर्थ्य के अनुसार, भक्त तीन प्रकार से परिक्रमा लगाते हैं। एक, पैदल, दूसरी, दूधधारा के साथ और तीसरी, दण्डौती। सामर्थ्य के अनुसार ही भक्त छोटी और बड़ी दोनों या फिर एक परिक्रमा लगाते हैं। श्रीगोवर्धन परिक्रमा मार्ग पर अनेक पवित्र स्थल हैं जिनमें आन्यौर, जतिपुरा, मुखारविंद मंदिर, राधाकुण्ड, कुसुम सरोवर, मानसी गंगा, गोविन्द कुण्ड, पूंछरी का लौठा, दानघाटी इत्यादि प्रमुख हैं। इन सभी स्थलों से भगवान की मनोहारी कथाएँ जुड़ी हुई हैं।

कहते हैं कि गोवर्धन महाराज की सिफारिश हो तो ठाकुरजी भक्त की हर मनोकामना पूरी कर देते हैं।