रविवार, 26 जुलाई 2009

संगीतमय मधुराष्टकं


पद्मपुराण में भगवान् कहते हैं, हे नारद! ना तो मैं वैकुण्ठ में रहता हूँ और ना ही योगियों के हृदय में। मैं तो वहीं रहता हूँ जहाँ मेरे भक्त मेरा कीर्तन करते हैं।
प्रस्तुत है, मधुराष्टकं का संगीतमय रूप। इसे मधुर गायक येसुदासजी ने गाया है।








Madhurashtakam.mp3

गुरुवार, 23 जुलाई 2009

मधुराष्टकं

मधुराष्टकं की रचना महान वैश्न्वाचार्य श्री वल्लभाचार्यजी ने की थी। यह एक अत्यन्त सुंदर स्तोत्र है जिसमें मधुरापति भगवान् कृष्ण के सरस और सर्वांग सुंदर रूप और भावों का वर्णन है। मधुराष्टकं मूल रूप से संस्कृत में रचित है।
मधुराष्टकं में आठ पद हैं और हर पद में मधुरं शब्द का सात बार प्रयोग किया गया है। ऐसा स्वाभाविक भी है क्योंकि कृष्ण साक्षात् माधुर्य और मधुरापति हैं। किसी भक्त ने कहा है कि यदि मेरे समक्ष अमृत और श्रीकृष्ण का माधुर्य रूप हो तो मैं श्रीकृष्ण का माधुर्य रूप ही चाहूँगा क्योंकि अमृत तो एक बार पान करने से समाप्त हो जाएगा लेकिन भगवान् का माधुर्य रूप तो निरंतर बढ़ता ही जाएगा। भगवान् के माधुर्य रूप की ऐसी महिमा है। प्रस्तुत है, श्री वल्लभाचार्यजी कृत मधुराष्टकं:


अधरं मधुरं वदनं मधुरं, नयनं मधुरं हसितं मधुरं।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥१॥
वचनं मधुरं चरितं मधुरं, वसनं मधुरं वलितं मधुरं ।
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥२॥
वेणुर्मधुरो रेनुर्मधुरः, पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ ।
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥३॥
गीतं मधुरं पीतं मधुरं, भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरं ।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥४॥
करणं मधुरं तरणं मधुरं, हरणं मधुरं रमणं मधुरं ।
वमितं मधुरं शमितं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥५॥
गुंजा मधुरा माला मधुरा, यमुना मधुरा वीचीर्मधुरा ।
सलिलं मधुरं कमलं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥६॥
गोपी मधुरा लीला मधुरा, युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरं।
दृष्टं मधुरं सृष्टं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥७॥
गोपा मधुरा गावो मधुरा, यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा ।
दलितं मधुरं फ़लितं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥८॥






















सोमवार, 20 जुलाई 2009

भक्ति वेदांत स्वामी



जो भक्त मेरा अनन्य ध्यान करते हैं और सदैव मेरी उपासना करते हैं, मैं उन्हें अप्राप्त प्रदान करता हूँ और उनके प्राप्त की रक्षा करता हूँ। -श्रीमदभगवद्गीता


1965 में जब भक्ति वेदांत स्वामी अमरीका में कृष्ण भक्ति का प्रचार करने के लिए जलदूत नामक जहाज पर सवार हुए तो उनके पास चालीस रूपये की मामूली सी राशि थी और उनकी आयु थी 61 वर्ष, लेकिन भगवान की कृपा और गुरु श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर के आशीर्वाद अक्षय संपत्ति उनके साथ थी। सामान के नाम पर उनके पास माला-झोली और श्रीमद्भागवत की प्रतियों से भरा एक संदूक था। टिकेट का बंदोबस्त जहाज की मालकिन ने कर दिया था।

भक्ति वेदांत स्वामी का असली नाम अभय डे था, लेकिन उनके गुरु ने उन्हें अभय चरणारविन्द भक्ति वेदांत नाम दिया था। अंग्रेज़ी भाषा की जानकारी होने के कारण गुरु ने उन्हें पश्चिम देशों में जाकर कृष्ण भक्ति का प्रचार करने की आज्ञा दी। श्रील कृष्णदास कविराज ने कहा है, ‘जिसने भारतभूमि पर मनुष्य के रूप में जन्म लिया हो उसे (भक्ति द्वारा) अपना जीवन सफल बनाना चाहिए और परोपकार के लिए काम करना चाहिए।' भक्ति वेदांत स्वामी के मन में कहीं ये बात छुपी हुई थी। भक्ति वेदांत स्वामी कलकत्ता में रहा करते थे। उनका दवाइयों का कारोबार था लेकिन वे अपना जीवन लीला पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण के चरणों में अर्पित कर चुके थे। नतीजन कारोबार ठप्प होता गया। एक सच्चा भक्त बाधाओं को भगवान द्वारा ली जा रही परीक्षा या प्रेम समझता है। भक्ति वेदांत मानते थे कि जब भगवान व्यक्ति को अपनी शरण में लेते हैं तो सबसे पहले उसका धन हर लेते हैं। अन्य परेशानियाँ भी कम न थीं। उनका अपना परिवार उनकी यायावर और भक्तिमय प्रवृत्ति को पसंद नहीं करता था। एक बार जब उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि तुम्हें चाय या मुझमें से किसी एक को चुनना होगा, (वैष्णवमत में चाय निषिद्ध है)। जवाब मिला, तब तो मुझे अपने पति को छोड़ना पड़ेगा। धन की तंगी थी लेकिन भक्ति वेदांत ने ‘Back to Godhead' पत्रिका निकालना जारी रखा। आज यह पत्रिका हिन्दी समेत दुनिया की तीस से अधिक भाषाओँ में प्रकाशित हो रही है। वह अपना समय गीता उपदेश में और पत्रिका के प्रचार में लगाया करते थे। पत्रिका के प्रकाशन के सिलसिले में वह दिल्ली के चांदनी चौक में भी रहे। उस दौरान कड़कती ठण्ड में उनके पास गरम कपडों के नाम पर सिर्फ़ धोती और कुरता हुआ करता था। बाद में, काफ़ी समय तक वृन्दावन के श्रीराधा-दामोदर मन्दिर में रहकर उन्होंने श्रीमदभागवत के शुरुआती खंड लिखे।

अमरीका में उनकी राह आसान नहीं थी। उन्हें हिप्पिओं के मुहल्ले में रहना पड़ा जिनके दो शगल थे। एक, ड्रग्स और दूसरा संगीत। उनकी नज़र में नशा सबसे बड़ा आनंद था। भक्ति वेदांत जहाँ रहा करते उस कमरे के बाहर बच्चों और गुज़रती गाड़ियों का शोर होता रहता। प्रवचन के दौरान कभी कोई शराबी घुस आता तो कभी ड्रग्स के नशे में चूर लड़की जिसे अपने शरीर का भी होश न रहता। किसी ना किसी वजह से व्याख्यान देना दुष्कर काम होता था। अपने गुरुजी को एक पत्र में वे लिखते हैं,'मैं उन्हें कृष्ण-भक्ति कैसे समझाऊँ। मैं अत्यन्त अभागा, अयोग्य तथा परमपतित हूँ। अत:आप आशीर्वाद दें कि मैं उन्हें आश्वस्त कर सकूँ, क्योंकि मैं अपनी ओर से ऐसा करने में अक्षम हूँ।' भागवत में कहा गया है, ‘भगवान की भक्ति में लगे हुए भक्त को कभी जीवन की किसी अवस्था से डर नहीं लगता,उसके लिए स्वर्ग और नरक एक समान हैं।'फिर भक्ति वेदांत तो भगवान् के असाधारण भक्त थे। धीरे-धीरे उनकी व्याख्यान कक्षा में भीड़ बढ़ने लगी। वे जब मृदंग की थाप पर कीर्तन किया करते तो संगीत के शौकीन हिप्पी उनकी और खिंचने लगते। भक्ति वेदांत की कृष्ण चर्चा और भक्तिमय सान्निध्य में बुद्धिवादी और नास्तिक हिप्पिओं को जल्द समझ आ गया कि ड्रग्स नहीं बल्कि कृष्ण भक्ति का रस असली परम आनन्द है। वे उनके शिष्य बन गए। उनके रहते अब भक्ति वेदांत को भगवान् की सेवा और रसोई की चिंता नहीं थी। शिष्यों की संख्या बढ़ती गई, बिना किसी छल, बल और धन के। बड़ी-बड़ी शख्सियतें कृष्ण भक्ति की और उन्मुख होने लगीं। बीटल्स के सदस्य जोर्ज हेरिसन ने भक्तिवेदांत द्वारा टीकाबद्ध भगवद्गीता के पहले संस्करण का सारा खर्च उठाया। आज भगवद्गीता के लगभग संसार की सभी प्रमुख भाषाओँ में एक करोड़ से ज्यादा संस्करण छप चुके हैं। विश्वविद्यालयों में उनकी टीकाबद्ध भगवद्गीता सबसे प्रमाणिक मानी जाती है। उनके लिखे दुसरे महान ग्रन्थ भक्ति और ज्ञान दोनों की अद्भुत मिसाल हैं।

भक्ति वेदांत स्वामी ने पूरी दुनिया में कृष्ण भक्ति और वैदिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। उनकी भक्ति का तेज और प्रताप है कि आज हर तरफ़ हरे कृष्ण महामंत्र गूंजने लगा है। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ (इस्कोन)की स्थापना की जिसके दुनियाभर में चार सौ पचास से ज्यादा सेंटर हैं। उन्होंने अपने जीवन के अन्तिम बारह सालों में घूम-घूम कर लोगों के जीवन को कृष्ण भावनाभावित किया और भक्ति व प्रेम की रसधार बहाई। उन्होंने दुनिया के कोने-कोने में मंदिरों की स्थापना की,भक्ति को व्यवस्थित रूप दिया, चरित्र को उदात्त बनाने की शिक्षा दी और सबसे बढ़कर अपने गुरु श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर की आज्ञा का भली-भांति पालन किया।

आज किसी वियतनामी को शाकाहार पर चर्चा करते और श्यामवर्णी किसी अफ्रीकी कृष्ण भक्त को भावविभोर होकर श्रीमद्भागवत का प्रवचन देते हुए देखकर हमें कोई हैरानी नहीं होती और ऐसी अनूठी घटना को आम बनाने के पीछे किसी और का नहीं एसी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद का जप करता हुआ हाथ है।

सोमवार, 13 जुलाई 2009

ताज बेगम


कहते हैं कि मुगलों के ज़माने में दिल्ली में ताज बेगम रहा करती थीं जो शरियत की सीमाओं से अलग खुदा की बंदगी में दिन गुज़ारा करती थीं। जब सच्चे प्रेमी से लौ लग गई तो पूजा पाठ कौन करे, नमाज़ कौन पढ़े?

'जहाँ प्रेम तां नैम नहीं, तां नहीं बुद्धि विचार।प्रेम मग्न जब मन भया, कौन गिने तिथ वर॥'

काजी और मौलविओं को बेगम की ये बेदिनी ना भायी। बेगम ने उनसे कहा कि अगर वे खुदा का दीदार करवा दें या ये बतला दें कि वह कहाँ रहता है तो वो खुदा का सजदा करने लगेंगी। घबराहट फ़ैल गई। आखिरकार किसी ने यह कहकर जान बचायी कि खुदा तो काबा में रहता है। फ़ैसला हुआ कि काबा जाया जाएगा और खुदा से मुलाक़ात की जायेगी। लाव-लश्कर चल पड़ा, मंजिल बनी काबा। सफर के दौरान, एक दिन पड़ाव वृन्दावन के पास डाल दिया गया। रात हुए बेगम को मन्दिर के घंटों की आवाज सुनाई दी। जिज्ञासा हुई तो पता लगा कि हिन्दुओं के खुदा की बंदगी हो रही है। क्या खुदा एक नहीं है? अगर खुदा भी अलग-अलग हैं तो हम इसी खुदा का दीदार करेंगे, इतनी दूर जाने की क्या तुक है? खूब जोर लगाया गया पर बेगम नहीं मानी, मानती भी कैसे, वो तो प्रेम में उन्मत्त थी। हिन्दुओं के खुदा के दर्शन किए तो उन्हीं की होकर रह गयीं, ‘सुनिए दिल जानी, मेरे दिल की कहानी, तेरे हाथ हूँ बिकानी..... ।'प्रेम और विरह में तप्त ताज बेगम का भक्तिमय जीवन हमें बताता है कि ईश्वर एक है उसे किसी पंथ या वाद में नहीं बाँधा जा सकता। ये दुनिया उसी की है और हम सब उसी के बन्दे हैं। पेश है, उन्हीं ताज बेगम की एक रचना:

छैल जो छबीला, सब रंग में रंगीला, बड़ा चित्त का अडीला, कहूँ देवतों से न्यारा है।
माल गले सोहे, नाक मोती सेत जो है, कान कुंडल मन मोहे, लाल मुकुट सिर धारा है।
दुष्ट जन मारे, सब संत जो उबारे, 'ताज' चित्त में निहारे प्रन प्रीति करनवारा है।
नन्दजू का प्यारा, जिन कंस को पछारा, वह वृन्दावनवारा, कृष्ण साहेब हमारा है।