सोमवार, 13 जुलाई 2009

ताज बेगम


कहते हैं कि मुगलों के ज़माने में दिल्ली में ताज बेगम रहा करती थीं जो शरियत की सीमाओं से अलग खुदा की बंदगी में दिन गुज़ारा करती थीं। जब सच्चे प्रेमी से लौ लग गई तो पूजा पाठ कौन करे, नमाज़ कौन पढ़े?

'जहाँ प्रेम तां नैम नहीं, तां नहीं बुद्धि विचार।प्रेम मग्न जब मन भया, कौन गिने तिथ वर॥'

काजी और मौलविओं को बेगम की ये बेदिनी ना भायी। बेगम ने उनसे कहा कि अगर वे खुदा का दीदार करवा दें या ये बतला दें कि वह कहाँ रहता है तो वो खुदा का सजदा करने लगेंगी। घबराहट फ़ैल गई। आखिरकार किसी ने यह कहकर जान बचायी कि खुदा तो काबा में रहता है। फ़ैसला हुआ कि काबा जाया जाएगा और खुदा से मुलाक़ात की जायेगी। लाव-लश्कर चल पड़ा, मंजिल बनी काबा। सफर के दौरान, एक दिन पड़ाव वृन्दावन के पास डाल दिया गया। रात हुए बेगम को मन्दिर के घंटों की आवाज सुनाई दी। जिज्ञासा हुई तो पता लगा कि हिन्दुओं के खुदा की बंदगी हो रही है। क्या खुदा एक नहीं है? अगर खुदा भी अलग-अलग हैं तो हम इसी खुदा का दीदार करेंगे, इतनी दूर जाने की क्या तुक है? खूब जोर लगाया गया पर बेगम नहीं मानी, मानती भी कैसे, वो तो प्रेम में उन्मत्त थी। हिन्दुओं के खुदा के दर्शन किए तो उन्हीं की होकर रह गयीं, ‘सुनिए दिल जानी, मेरे दिल की कहानी, तेरे हाथ हूँ बिकानी..... ।'प्रेम और विरह में तप्त ताज बेगम का भक्तिमय जीवन हमें बताता है कि ईश्वर एक है उसे किसी पंथ या वाद में नहीं बाँधा जा सकता। ये दुनिया उसी की है और हम सब उसी के बन्दे हैं। पेश है, उन्हीं ताज बेगम की एक रचना:

छैल जो छबीला, सब रंग में रंगीला, बड़ा चित्त का अडीला, कहूँ देवतों से न्यारा है।
माल गले सोहे, नाक मोती सेत जो है, कान कुंडल मन मोहे, लाल मुकुट सिर धारा है।
दुष्ट जन मारे, सब संत जो उबारे, 'ताज' चित्त में निहारे प्रन प्रीति करनवारा है।
नन्दजू का प्यारा, जिन कंस को पछारा, वह वृन्दावनवारा, कृष्ण साहेब हमारा है।