सोमवार, 21 दिसंबर 2009

जय हनुमान



प्रस्तुत है, गुंडेचा बंधुओं के स्वर में ध्रुपद में हनुमान भजन। ध्रुपद हमारी संगीत की प्राचीन गायन शैली है। यह शैली ओजस्वी और वीर रस से परिपूर्ण होती है। हनुमान तेज और शौर्य की प्रतिमूर्ति हैं और उनकी महिमा व गुणों का गान ध्रुपद द्वारा ही किया जा सकता है।
जय बजरंग बली

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

भजन


कारिदह पै खेलन आयो री मेरो...........

बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

भजन



झूला पै झूलै प्यारी रानी राधिका जी...........


गुरुवार, 24 सितंबर 2009

भज गोविन्दम



'भज गोविन्दम' स्तोत्र की रचना शंकराचार्य ने की थी। यह मूल रूप से बारह पदों में सरल संस्कृत में लिखा गया एक सुंदर स्तोत्र है। इसलिए इसे द्वादश मंजरिका भी कहते हैं। 'भज गोविन्दम' में शंकराचार्य ने संसार के मोह में ना पड़ कर भगवान् कृष्ण की भक्ति करने का उपदेश दिया है। उनके अनुसार, संसार असार है और भगवान् का नाम शाश्वत है। उन्होंने मनुष्य को किताबी ज्ञान में समय ना गँवाकर और भौतिक वस्तुओं की लालसा, तृष्णा व मोह छोड़ कर भगवान् का भजन करने की शिक्षा दी है। इसलिए 'भज गोविन्दम' को 'मोह मुगदर' यानि मोह नाशक भी कहा जाता है। शंकराचार्य का कहना है कि अन्तकाल में मनुष्य की सारी अर्जित विद्याएँ और कलाएँ किसी काम नहीं आएँगी, काम आएगा तो बस हरि नाम।
प्रस्तुत है, सुब्बुलक्ष्मी के स्वर में भज गोविन्दम :

M S Subbulakshmi -...

सोमवार, 21 सितंबर 2009

जैसे सूरज की गर्मी से जलते हुए तन को मिल जाए.....



जैसे सूरज की गर्मी से जलते हुए तन को
मिल जाये तरुवर कि छाया
ऐसा ही सुख मेरे मन को मिला है
मैं जबसे शरण तेरी आया, मेरे राम
भटका हुआ मेरा मन था कोई
मिल ना रहा था सहारा
लहरों से लड़ती हुई नाव को
जैसे मिल ना रहा हो किनारा
उस लड़खड़ाती हुई नाव को जो
किसी ने किनारा दिखाया
ऐसा ही सुख ...
शीतल बने आग चंदन के जैसी
राघव कृपा हो जो तेरी
उजियाली पूनम की हो जाएं रातें
जो थीं अमावस अंधेरी
युग-युग से प्यासी मरुभूमि ने
जैसे सावन का संदेस पाया
ऐसा ही सुख ...
जिस राह की मंज़िल तेरा मिलन हो
उस पर कदम मैं बढ़ाऊं
फूलों में खारों में, पतझड़ बहारों में
मैं न कभी डगमगाऊं
पानी के प्यासे को तक़दीर ने
जैसे जी भर के अमृत पिलाया
ऐसा ही सुख ...


गुरुवार, 17 सितंबर 2009

मुरली वाले ने घेर लई...................

बुधवार, 16 सितंबर 2009

ऊधो को गोपियों का उलाहना...........................


भजन सूरदास का, स्वर पुरुषोत्तम दास जलोटा का और राग है-वृन्दावनी सारंग।

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

मैली चादर...........


मैली चादर ओढ़ के कैसे द्वार तुम्हारे आऊँ
हे पावन परमेश्वर मेरे मन ही मन शरमाऊँ
तुमने मुझको जग में भेजा निर्मल देके काया
आकर के संसार मैं मैंने इसको दाग लगाया
जनम जनम की मैली चादर कैसे दाग छुडाऊँ
निर्मल वाणी पाकर तुझसे नाम ना तेरा गाया
नयन मूंदकर हे परमेश्वर कभी ना तुझको ध्याया
मन वीणा की तारें टूटी अब क्या गीत सुनाऊँ
इन पैरों से चलकर तेरे मंदिर कभी न आया
जहाँ जहाँ हो पूजा तेरी कभी न शीश झुकाया
हे हरिहर मैं हार के आया अब क्या हार चढाऊँसा
हरि ओम शरण के स्वर में :
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अनूप जलोटा के स्वर में:

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रविवार, 13 सितंबर 2009

नन्द-नंदनम

करो मन नन्द नंदन को ध्यान।
यह अवसर तोहे फिर ना मिलेगो, मेरो कहो अब मान॥
घूँगर वाली अलकें उसपर, कुंडल झलकत कान।
नारायण अलसाने नयना, झूमत रूप निधान॥






सोमवार, 7 सितंबर 2009

गोविन्द दामोदर माधवेति

ना मैं वैकुण्ठ में रहता हूँ और ना मैं योगियों के हृदय में बसता हूँ। हे नारद! जहाँ मेरे भक्त मेरा कीर्तन करते हैं, मैं वहीं रहता हूँ।

कौन सी ने कर दियो री टोना............




शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

मैं नहि माखन खायौ


प्रबल प्रेम के पाले पड़कर, प्रभु को नियम बदलते देखा,
अपना मान रहे ना रहे, पर भक्त का मान ना टलते देखा,
जिसकी केवल कृपा दृष्टि पर, सकल विश्व को पलते देखा,
उनको गोकुल के गौरस पर, सौ सौ बार मचलते देखा।

सोमवार, 24 अगस्त 2009

बिल्वमंगल


भगवान् श्री कृष्ण के अनेक अनन्य भक्त हुए हैं जिन्होंने अपने एकनिष्ठ प्रेम, समर्पण और भगवद ज्ञान से लोकमानस में भक्तिभाव का संचार किया। ७०० वर्ष पहले केरल में ऐसे ही एक असाधारण भक्त बिल्वमंगल हुए। कहा जाता है कि उन्हें एक वेश्या चिंतामणि से प्रेम हो गया था। एक बार उन पर उससे मिलन की उत्कंठा इतनी हावी हो गई कि पिता का क्रिया कर्म करते ही वे उससे मिलने दौड़ पड़े। तेज वर्षा में भी वे आगे बढ़ते रहे। वासना में डूबे हुए बिल्वमंगल ने तैरते शव पर चढ़ कर नदी को पार किया और दीवार पर लटकते साँप को पकड़कर अपनी प्रेयसी के पास पहुँच गये। जब चिंतामणि ने भीगे हुए बिल्वमंगल के हृदय की कामाग्नि देखी तो सलाह दी, "तुम माँस और हड्डी से बने इस तन की बजाय अचिंत्य भगवान श्रीकृष्ण से प्रेम करते तो तुम्हे पूर्ण और शाश्वत सुख मिल जाता।" बिल्वमंगल की चेतना लौटी और वे तुरंत वृंदावन चल पड़े। उन्होंने श्रीकृष्ण प्रेम की सुन्दर व मधुर कृति ‘श्रीकृष्ण कर्णामृतं’ के प्रथम श्लोक का आरम्भ आभार स्वरुप ‘चिंतामणि जयति.....’ से किया है। । श्री राधा-कृष्ण की माधुर्य पूर्ण लीला में प्रवेश के बाद उनका नाम लीला शुक हो गया। वे उन्मत्त होकर गोविन्द लीलागान करते थे। वे वृन्दावन में ब्रह्म कुंड के पास कुटिया में रहने लगे। भगवान् बालक रूप में उनके साथ खेला करते। लीला शुक उन्हें लाड़ से उन्नी बुलाया करते थे। उन्होंने ही माधुर्य लीला में श्रीमती राधारानी की सर्वोच्चता स्थापित की। उन्हीं के आधार पर ही, बाद में छह गोस्वामियों आदि संतों ने श्री राधा-कृष्ण लीला रूप को आधार बनाया और श्रीराधा भाव का विस्तार किया । बिल्वमंगल अर्थात लीला शुक की समाधि वृंदावन के गोपीनाथ बाज़ार में है।
लीला शुक द्वारा रचित ‘श्रीकृष्ण कर्णामृतं’ तीन अध्यायों में निबद्ध है और इसका एक-एक श्लोक कांतिमय मोती के समान है। इसी मधुर कृति में से प्रस्तुत है- एक उज्जवल मोती जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति बहुत भावपूर्ण एवं रसपूर्ण ढंग से की गई है। पहले श्लोक है, उसके बाद इसका अर्थ दिया गया है। श्लोक रूपी मोती को ओजस्वी स्वर में पिरोया है, संगीत मार्तंड जसराज ने।

कस्तूरी तिलकं ललाट पटले वक्ष: स्थले कौस्तुभं ।
नासाग्रे वरमौक्तिकं करतले वेणु: करे कंकणं॥
सर्वांगे हरि चन्दनं सुललितं कंठे च मुक्तावली।
गोपस्त्रीपरिवेष्टितो विजयते गोपाल चूडामणि: ॥

'हे श्रीकृष्ण! आपके मस्तक पर कस्तूरी तिलक सुशोभित है। आपके वक्ष पर देदीप्यमान कौस्तुभ मणि विराजित है। आपने नाक में सुंदर मोती पहना हुआ है। आपके हाथ में बांसुरी है और कलाई में आपने कंगन धारण किया हुआ है। हे हरि! आपकी सम्पूर्ण देह पर सुगन्धित चंदन लगा हुआ है और सुंदर कंठ मुक्ताहार से विभूषित है। आप सेवारत गोपियों के मुक्ति प्रदाता हैं। हे ईश्वर! आपकी जय हो। आप सर्वसौंदर्यपूर्ण हैं।'

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सोमवार, 17 अगस्त 2009

जय जगन्नाथ


जगन्नाथजी जगत के स्वामी हैं और सभी प्राणियों पर कृपा करनेवाले हैं। वे कृष्ण के लीलामय स्वरुप हैं और श्यामवर्णी हैं। जगन्नाथजी का उल्लेख स्कन्दपुराण, ब्रह्मपुराण और अन्य पुराणों में विस्तार से दिया गया है।
कई बार भक्तों को जगन्नाथजी का आदिरूप विचित्र लगता है। वे सोचते हैं कि न तो उनके नेत्र, उनका मुखमंडल पूर्ण हैं और न ही उनके हाथ और पैर अंग विकसित हैं। उनकी पूरी की पूरी छवि अधूरी सी प्रतीत होती है। गर्गसंहिता के अनुसार, कलियुग के आरम्भ में पांडु वंश के राजा उदयन के पुत्र इन्द्रद्युम्न को स्वप्न में नील पर्वत पर पूजित भगवान् नीलमाधव के विग्रह (श्री मूर्ति) के दर्शन हुए। राजा भगवान् नीलमाधव के सौन्दर्य से अभिभूत हो गए। जागने पर उन्होंने निश्चय किया कि वे वैसे ही सुंदर विग्रह अपनी राजधानी में प्रतिष्ठित करवाएंगे। उन्होंने अनेक योग्य ब्राह्मणों को भगवान् नीलमाधव के विग्रह ढूंढने के लिए भेजा लेकिन विद्यापति नामक ब्राह्मण को ही सफलता मिली। जब राजा दल-बल के साथ दर्शन करने पहुंचे तो विग्रह अंतर्धान हो गए। राजा की निराशा और व्याकुलता देखकर स्वप्न में उन्हें आदेश मिला कि तुम्हें समुद्र में बहता नीम का तना मिलेगा जिससे तुम भगवान् जगन्नाथ, उनकी बहन सुभद्रा और भाई बलराम के विग्रहों का निर्माण करवाओ। राजा ने विग्रह निर्माण के लिए दक्ष शिल्पकारों को बुलवाया लेकिन उस रहस्यमयी लकड़ी के सामने उनके औजार ख़राब हो गए। तभी वहां एक वृद्ध शिल्पी आया जिसने राजा के सम्मुख प्रस्ताव रखा कि विग्रहों का निर्माण अवश्य कर देगा लेकिन वह यह कार्य बंद कमरे में ही करेगा। जब तक मैं न कहूँ कोई कमरे में प्रवेश नहीं करेगा। यदि किसी ने कमरे में प्रवेश किया तो मैं कार्य बंद कर दूँगा। राजा शिल्पी की बात मान गया। १५ दिन बीत गए। राजा को चिंता हुई कि शिल्पी ने ना कुछ खाया है ना पीया है, कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया। चिंतित राजा ने कमरा खुलवाया तो शिल्पी अदृश्य हो गया और विग्रह अधूरे बने हुए थे। राजा सोच में पड़ गए कि भगवान् का ये रूप तो प्रामाणिक नहीं हैं, इसकी स्थापना कैसे होगी? तभी भगवद् इच्छा से नारद प्रकट हुए। उन्होंने जगन्नाथजी सहित उनकी बहन सुभद्रा और भाई बलराम के विग्रहों को इसी अपूर्णता के साथ स्थापित करने का निर्देश दिया। नारद ने कहा, 'भगवान् का ये लीलामय और प्रामाणिक रूप है और इसे भगवान् ने द्वापरयुग में द्वारकापुरी में प्रकट किया था। एक बार भगवान् की पत्नियों को अपने स्वामी के गोपियों के प्रति प्रेम के कारण यह शंका हुई की लीलापुरुषोत्तम की उनके प्रति आसक्ति नहीं हैं। उनकी शंका जानकर बलराम की माता रोहिणी ने उन्हें समझाया की श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों के प्रेम का रहस्य वह जानती हैं और यह रहस्य बंद कक्ष में ही बताया जा सकता है। सुभद्रा को आदेश हुआ कि वह द्वार पर रहे और किसी को, चाहे कृष्ण और बलराम ही क्यों ना हों, अन्दर ना आने दे ना किसी को इस रहस्य को सुनने दे। उसी समय कृष्ण और बलराम आ गए और उत्सुकतावश तीनों माता रोहिणी के मुख से गोपी प्रेम का रहस्य सुनने लगे। इसे सुनकर वे विस्मित हो गए। उनके नेत्र खुले के खुले रह गए और हाथ-पैर शरीर में समा गए।' नारद ने कहा, 'राजन, अब तुम्हारे प्रयास से भगवान् के इसी रूप के दर्शन समस्त जगत करेगा।' जगन्नाथजी, सुभद्रा और बलराम के स्वरूप के अधूरेपन का यही कारण है। नारद मुनि से ही राजा को ज्ञात हुआ कि वह वृद्ध शिल्पी कोई और नहीं बल्कि देवशिल्पी विश्वकर्मा थे। राजा इन्द्रद्युम्न ने पुरी में एक विशाल मन्दिर बनवा कर जगन्नाथजी, सुभद्रा और बलराम के विग्रह स्थापित करवाए।
भगवान् जगन्नाथ का वर्तमान मन्दिर कलिंग शैली में बना हुआ है जिसके शिखर पर नीलचक्र विराजित है। इसका निर्माण गंग वंश के सम्राट अनंगभीम तृतीय ने करवाया था। मन्दिर के गर्भ गृह में बनी रत्न वेदी पर जगन्नाथजी, सुभद्रा और बलराम के साथ सुदर्शन चक्र, माधब, श्रीदेवी, भूदेवी विराजमान हैं। मन्दिर परिसर में भगवान् के भोग के लिए एक विशाल रसोई बनी हुई है। कहा जाता है कि श्रीलक्ष्मीजी रसोई में स्वयं भोग तैयार करती हैं।

जय जगन्नाथ !

सोमवार, 10 अगस्त 2009

गोपीगीत


श्रीमदभागवतम भगवान श्रीकृष्ण का वांग्मय स्वरुप है। इसीलिए इसके बारह स्कंध उनकी देह के बारह अंग के समान हैं। उनमें से दसवां स्कंध इस देह रुपी महापुराण का हृदय है। इस स्कंध के पाँच अध्याय देह के पञ्च तत्त्व हैं और इन पाँच तत्त्वों में गोपी गीत सबसे महत्वपूर्ण तत्त्व है। दशम स्कंध के २९ से लेकर ३३ तक के इन पाँचों अध्यायों को रासपंचाध्यायी कहा जाता है। 'रास' शब्द का अर्थ है-रस, और ये रस भगवान् कृष्ण स्वयं हैं, 'रसो वै स:'। रासपंचाध्यायी में वंशी का सुर, गोपियों का मिलन, रमण, भगवान् का अंतर्धान, प्राकट्य, रास नृत्य, जलकेलि और वनविहार का चित्रण है। इनमें भगवान् कृष्ण की परम अन्तरंग लीला, निजस्वरूप भूता गोपिकाओं और अल्हादिनीशक्ति श्रीराधाजी के साथ होनेवाली भगवान् की दिव्यातिदिव्य क्रीड़ा भी प्रकट हुई है।
गोपी गीत श्रीमदभागवतम के दसवें स्कंध के रासपंचाध्यायी का ३१ वां अध्याय है। इसमें १९ श्लोक हैं। रास लीला के समय गोपियों को मान हो जाता है। भगवान् उनका मान भंग करने के लिए अंतर्धान हो जाते हैं। उन्हें न पाकर गोपियाँ व्याकुल हो जाती हैं। वे आर्त्त स्वर में पुकारती हैं, 'व्रजवासियों के दुःख दूर करने वाले वीरशिरोमणि श्यामसुन्दर! तुम्हारी मंद-मंद मुस्कान की एक उज्जवल रेखा ही तुम्हारे प्रेमीजनों के सारे मान मद को चूर-चूर कर देने के लिए पर्याप्त है। हमारे प्रियसखा! हमसे रूठो मत, प्रेम करो। हम तो तुम्हारी दासी हैं, तुम्हारे चरणों पर निछावर हैं। हम अबलाओं को अपना वह परम सुंदर साँवरा मुखपंकज दिखाओ।' उनकी देह, मन और आत्मा भगवान् के दर्शन की स्मृति में डूब जाते हैं। वे यमुना के तट पर आ जाती हैं और प्रेम में अभिभूत होकर भगवान् के दिव्य रूप और लीलाओं का गुणगान करने लगती हैं। यही विरहगान गोपी गीत है। इसमें प्रेम के अश्रु, मिलन की प्यास, दर्शन की उत्कंठा और स्मृतियों का रूदन है। भगवद प्रेम सम्बन्ध में गोपियों का प्रेम सबसे निर्मल, सर्वोच्च और अतुलनीय माना गया है।


गोप्य ऊचुः
जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥1॥
शरदुदाशये साधुजातसत्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा ।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥2॥
विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसाद्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात् ।
वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥3॥
न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् ।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये सख उदेयिवान्सात्वतां कुले ॥4॥
विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् ।
करसरोरुहं कान्त कामदं शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम् ॥5॥
व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां निजजनस्मयध्वंसनस्मित ।
भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो जलरुहाननं चारु दर्शय ॥6॥
प्रणतदेहिनांपापकर्शनं तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम् ।
फणिफणार्पितं ते पदांबुजं कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥7॥
गिरा वल्गुवाक्यया बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण ।
वीर मुह्यतीरधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः ॥8॥
तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।
श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥9॥
प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं विहरणं च ते ध्यानमङ्गलम् ।
रहसि संविदो या हृदिस्पृशः कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥10॥
चलसि यद्व्रजाच्चारयन्पशून् नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम् ।
शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः कलिलतां मनः कान्त गच्छति ॥11॥
दिनपरिक्षये नीलकुन्तलैर्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम् ।
घनरजस्वलं दर्शयन्मुहुर्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ॥12॥
प्रणतकामदं पद्मजार्चितं धरणिमण्डनं ध्येयमापदि ।
चरणपङ्कजं शंतमं च ते रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन् ॥13॥
सुरतवर्धनं शोकनाशनं स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम् ।
इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेऽधरामृतम् ॥14॥
अटति यद्भवानह्नि काननं त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् ।
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम् ॥15॥
पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवानतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः ।
गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥16॥
रहसि संविदं हृच्छयोदयं प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम् ।
बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः ॥17॥
व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम् ।
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् ॥18॥
यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेष भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु ।
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित् कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥19॥







Gopi Geet - Mridul...

सोमवार, 3 अगस्त 2009

पवनसुत हनुमान

भगवान की कृपा से मुझे हनुमानजी के अनेक स्वरूपों के दर्शन करने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ है। इन विविध रूपों में कहीं तो पवनसुत स्वप्रकटित शिलाकार में हैं तो कहीं संगमरमर में उकरी छवि के रूप में, कहीं वे मोटे हनुमान जी बनकर प्रतिष्ठित हैं तो कहीं एक ही विराट शिलाखंड के तौर पर, जैसे कि दिल्ली के राव तुलाराम मार्ग पर। उड़ीसा में बजरंगी के अति सुड्डोल और सुघर रूप के दर्शन होते हैं। लेकिन मेरे मन में उनकी एक छवि बहुत गहरी अंकित है, और वह है उनका श्याम रूप। कुछ वर्ष पहले, जनवरी की ठिठुरती शाम में, वृन्दावन के श्री रंगजी के मन्दिर के पीछे की और बने द्वार पर प्रहरी की ड्यूटी निभा रहे हनुमानजी के दर्शन किए तो बस मैं उन्हें देखता ही रह गया। ठण्ड की वजह से उन्होंने रजाई ओढ़ रखी थी और शायद कृष्ण प्रेम में उनकी देह भी श्याम रंग में रंग गई थी। उनका रूप अनुपम था, मुख मंडल पर दीनता और प्रेम विराजमान था। मेरे मन के मन्दिर में उनका यह रूप अभी भी वैसा ही बसा हुआ है।
मंगलता, निर्भयता, भक्ति और प्रेम की धारा बहाने वाले अन्जनिनंदन हनुमानजी की स्तुति एवं स्मृति रूप में, आइये सुनें राजन मिश्रा-साजन मिश्रा के स्वर में हनुमान चालीसा, जो सांवले हनुमानजी की छवि के समान निराली है।
इसके बाद हरिहरन के स्वर में पारम्परिक धुन में हनुमान चालीसा है।
00. HANUMAAN CHALI...

रविवार, 26 जुलाई 2009

संगीतमय मधुराष्टकं


पद्मपुराण में भगवान् कहते हैं, हे नारद! ना तो मैं वैकुण्ठ में रहता हूँ और ना ही योगियों के हृदय में। मैं तो वहीं रहता हूँ जहाँ मेरे भक्त मेरा कीर्तन करते हैं।
प्रस्तुत है, मधुराष्टकं का संगीतमय रूप। इसे मधुर गायक येसुदासजी ने गाया है।








Madhurashtakam.mp3

गुरुवार, 23 जुलाई 2009

मधुराष्टकं

मधुराष्टकं की रचना महान वैश्न्वाचार्य श्री वल्लभाचार्यजी ने की थी। यह एक अत्यन्त सुंदर स्तोत्र है जिसमें मधुरापति भगवान् कृष्ण के सरस और सर्वांग सुंदर रूप और भावों का वर्णन है। मधुराष्टकं मूल रूप से संस्कृत में रचित है।
मधुराष्टकं में आठ पद हैं और हर पद में मधुरं शब्द का सात बार प्रयोग किया गया है। ऐसा स्वाभाविक भी है क्योंकि कृष्ण साक्षात् माधुर्य और मधुरापति हैं। किसी भक्त ने कहा है कि यदि मेरे समक्ष अमृत और श्रीकृष्ण का माधुर्य रूप हो तो मैं श्रीकृष्ण का माधुर्य रूप ही चाहूँगा क्योंकि अमृत तो एक बार पान करने से समाप्त हो जाएगा लेकिन भगवान् का माधुर्य रूप तो निरंतर बढ़ता ही जाएगा। भगवान् के माधुर्य रूप की ऐसी महिमा है। प्रस्तुत है, श्री वल्लभाचार्यजी कृत मधुराष्टकं:


अधरं मधुरं वदनं मधुरं, नयनं मधुरं हसितं मधुरं।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥१॥
वचनं मधुरं चरितं मधुरं, वसनं मधुरं वलितं मधुरं ।
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥२॥
वेणुर्मधुरो रेनुर्मधुरः, पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ ।
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥३॥
गीतं मधुरं पीतं मधुरं, भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरं ।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥४॥
करणं मधुरं तरणं मधुरं, हरणं मधुरं रमणं मधुरं ।
वमितं मधुरं शमितं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥५॥
गुंजा मधुरा माला मधुरा, यमुना मधुरा वीचीर्मधुरा ।
सलिलं मधुरं कमलं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥६॥
गोपी मधुरा लीला मधुरा, युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरं।
दृष्टं मधुरं सृष्टं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥७॥
गोपा मधुरा गावो मधुरा, यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा ।
दलितं मधुरं फ़लितं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥८॥






















सोमवार, 20 जुलाई 2009

भक्ति वेदांत स्वामी



जो भक्त मेरा अनन्य ध्यान करते हैं और सदैव मेरी उपासना करते हैं, मैं उन्हें अप्राप्त प्रदान करता हूँ और उनके प्राप्त की रक्षा करता हूँ। -श्रीमदभगवद्गीता


1965 में जब भक्ति वेदांत स्वामी अमरीका में कृष्ण भक्ति का प्रचार करने के लिए जलदूत नामक जहाज पर सवार हुए तो उनके पास चालीस रूपये की मामूली सी राशि थी और उनकी आयु थी 61 वर्ष, लेकिन भगवान की कृपा और गुरु श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर के आशीर्वाद अक्षय संपत्ति उनके साथ थी। सामान के नाम पर उनके पास माला-झोली और श्रीमद्भागवत की प्रतियों से भरा एक संदूक था। टिकेट का बंदोबस्त जहाज की मालकिन ने कर दिया था।

भक्ति वेदांत स्वामी का असली नाम अभय डे था, लेकिन उनके गुरु ने उन्हें अभय चरणारविन्द भक्ति वेदांत नाम दिया था। अंग्रेज़ी भाषा की जानकारी होने के कारण गुरु ने उन्हें पश्चिम देशों में जाकर कृष्ण भक्ति का प्रचार करने की आज्ञा दी। श्रील कृष्णदास कविराज ने कहा है, ‘जिसने भारतभूमि पर मनुष्य के रूप में जन्म लिया हो उसे (भक्ति द्वारा) अपना जीवन सफल बनाना चाहिए और परोपकार के लिए काम करना चाहिए।' भक्ति वेदांत स्वामी के मन में कहीं ये बात छुपी हुई थी। भक्ति वेदांत स्वामी कलकत्ता में रहा करते थे। उनका दवाइयों का कारोबार था लेकिन वे अपना जीवन लीला पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण के चरणों में अर्पित कर चुके थे। नतीजन कारोबार ठप्प होता गया। एक सच्चा भक्त बाधाओं को भगवान द्वारा ली जा रही परीक्षा या प्रेम समझता है। भक्ति वेदांत मानते थे कि जब भगवान व्यक्ति को अपनी शरण में लेते हैं तो सबसे पहले उसका धन हर लेते हैं। अन्य परेशानियाँ भी कम न थीं। उनका अपना परिवार उनकी यायावर और भक्तिमय प्रवृत्ति को पसंद नहीं करता था। एक बार जब उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि तुम्हें चाय या मुझमें से किसी एक को चुनना होगा, (वैष्णवमत में चाय निषिद्ध है)। जवाब मिला, तब तो मुझे अपने पति को छोड़ना पड़ेगा। धन की तंगी थी लेकिन भक्ति वेदांत ने ‘Back to Godhead' पत्रिका निकालना जारी रखा। आज यह पत्रिका हिन्दी समेत दुनिया की तीस से अधिक भाषाओँ में प्रकाशित हो रही है। वह अपना समय गीता उपदेश में और पत्रिका के प्रचार में लगाया करते थे। पत्रिका के प्रकाशन के सिलसिले में वह दिल्ली के चांदनी चौक में भी रहे। उस दौरान कड़कती ठण्ड में उनके पास गरम कपडों के नाम पर सिर्फ़ धोती और कुरता हुआ करता था। बाद में, काफ़ी समय तक वृन्दावन के श्रीराधा-दामोदर मन्दिर में रहकर उन्होंने श्रीमदभागवत के शुरुआती खंड लिखे।

अमरीका में उनकी राह आसान नहीं थी। उन्हें हिप्पिओं के मुहल्ले में रहना पड़ा जिनके दो शगल थे। एक, ड्रग्स और दूसरा संगीत। उनकी नज़र में नशा सबसे बड़ा आनंद था। भक्ति वेदांत जहाँ रहा करते उस कमरे के बाहर बच्चों और गुज़रती गाड़ियों का शोर होता रहता। प्रवचन के दौरान कभी कोई शराबी घुस आता तो कभी ड्रग्स के नशे में चूर लड़की जिसे अपने शरीर का भी होश न रहता। किसी ना किसी वजह से व्याख्यान देना दुष्कर काम होता था। अपने गुरुजी को एक पत्र में वे लिखते हैं,'मैं उन्हें कृष्ण-भक्ति कैसे समझाऊँ। मैं अत्यन्त अभागा, अयोग्य तथा परमपतित हूँ। अत:आप आशीर्वाद दें कि मैं उन्हें आश्वस्त कर सकूँ, क्योंकि मैं अपनी ओर से ऐसा करने में अक्षम हूँ।' भागवत में कहा गया है, ‘भगवान की भक्ति में लगे हुए भक्त को कभी जीवन की किसी अवस्था से डर नहीं लगता,उसके लिए स्वर्ग और नरक एक समान हैं।'फिर भक्ति वेदांत तो भगवान् के असाधारण भक्त थे। धीरे-धीरे उनकी व्याख्यान कक्षा में भीड़ बढ़ने लगी। वे जब मृदंग की थाप पर कीर्तन किया करते तो संगीत के शौकीन हिप्पी उनकी और खिंचने लगते। भक्ति वेदांत की कृष्ण चर्चा और भक्तिमय सान्निध्य में बुद्धिवादी और नास्तिक हिप्पिओं को जल्द समझ आ गया कि ड्रग्स नहीं बल्कि कृष्ण भक्ति का रस असली परम आनन्द है। वे उनके शिष्य बन गए। उनके रहते अब भक्ति वेदांत को भगवान् की सेवा और रसोई की चिंता नहीं थी। शिष्यों की संख्या बढ़ती गई, बिना किसी छल, बल और धन के। बड़ी-बड़ी शख्सियतें कृष्ण भक्ति की और उन्मुख होने लगीं। बीटल्स के सदस्य जोर्ज हेरिसन ने भक्तिवेदांत द्वारा टीकाबद्ध भगवद्गीता के पहले संस्करण का सारा खर्च उठाया। आज भगवद्गीता के लगभग संसार की सभी प्रमुख भाषाओँ में एक करोड़ से ज्यादा संस्करण छप चुके हैं। विश्वविद्यालयों में उनकी टीकाबद्ध भगवद्गीता सबसे प्रमाणिक मानी जाती है। उनके लिखे दुसरे महान ग्रन्थ भक्ति और ज्ञान दोनों की अद्भुत मिसाल हैं।

भक्ति वेदांत स्वामी ने पूरी दुनिया में कृष्ण भक्ति और वैदिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। उनकी भक्ति का तेज और प्रताप है कि आज हर तरफ़ हरे कृष्ण महामंत्र गूंजने लगा है। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ (इस्कोन)की स्थापना की जिसके दुनियाभर में चार सौ पचास से ज्यादा सेंटर हैं। उन्होंने अपने जीवन के अन्तिम बारह सालों में घूम-घूम कर लोगों के जीवन को कृष्ण भावनाभावित किया और भक्ति व प्रेम की रसधार बहाई। उन्होंने दुनिया के कोने-कोने में मंदिरों की स्थापना की,भक्ति को व्यवस्थित रूप दिया, चरित्र को उदात्त बनाने की शिक्षा दी और सबसे बढ़कर अपने गुरु श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर की आज्ञा का भली-भांति पालन किया।

आज किसी वियतनामी को शाकाहार पर चर्चा करते और श्यामवर्णी किसी अफ्रीकी कृष्ण भक्त को भावविभोर होकर श्रीमद्भागवत का प्रवचन देते हुए देखकर हमें कोई हैरानी नहीं होती और ऐसी अनूठी घटना को आम बनाने के पीछे किसी और का नहीं एसी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद का जप करता हुआ हाथ है।

सोमवार, 13 जुलाई 2009

ताज बेगम


कहते हैं कि मुगलों के ज़माने में दिल्ली में ताज बेगम रहा करती थीं जो शरियत की सीमाओं से अलग खुदा की बंदगी में दिन गुज़ारा करती थीं। जब सच्चे प्रेमी से लौ लग गई तो पूजा पाठ कौन करे, नमाज़ कौन पढ़े?

'जहाँ प्रेम तां नैम नहीं, तां नहीं बुद्धि विचार।प्रेम मग्न जब मन भया, कौन गिने तिथ वर॥'

काजी और मौलविओं को बेगम की ये बेदिनी ना भायी। बेगम ने उनसे कहा कि अगर वे खुदा का दीदार करवा दें या ये बतला दें कि वह कहाँ रहता है तो वो खुदा का सजदा करने लगेंगी। घबराहट फ़ैल गई। आखिरकार किसी ने यह कहकर जान बचायी कि खुदा तो काबा में रहता है। फ़ैसला हुआ कि काबा जाया जाएगा और खुदा से मुलाक़ात की जायेगी। लाव-लश्कर चल पड़ा, मंजिल बनी काबा। सफर के दौरान, एक दिन पड़ाव वृन्दावन के पास डाल दिया गया। रात हुए बेगम को मन्दिर के घंटों की आवाज सुनाई दी। जिज्ञासा हुई तो पता लगा कि हिन्दुओं के खुदा की बंदगी हो रही है। क्या खुदा एक नहीं है? अगर खुदा भी अलग-अलग हैं तो हम इसी खुदा का दीदार करेंगे, इतनी दूर जाने की क्या तुक है? खूब जोर लगाया गया पर बेगम नहीं मानी, मानती भी कैसे, वो तो प्रेम में उन्मत्त थी। हिन्दुओं के खुदा के दर्शन किए तो उन्हीं की होकर रह गयीं, ‘सुनिए दिल जानी, मेरे दिल की कहानी, तेरे हाथ हूँ बिकानी..... ।'प्रेम और विरह में तप्त ताज बेगम का भक्तिमय जीवन हमें बताता है कि ईश्वर एक है उसे किसी पंथ या वाद में नहीं बाँधा जा सकता। ये दुनिया उसी की है और हम सब उसी के बन्दे हैं। पेश है, उन्हीं ताज बेगम की एक रचना:

छैल जो छबीला, सब रंग में रंगीला, बड़ा चित्त का अडीला, कहूँ देवतों से न्यारा है।
माल गले सोहे, नाक मोती सेत जो है, कान कुंडल मन मोहे, लाल मुकुट सिर धारा है।
दुष्ट जन मारे, सब संत जो उबारे, 'ताज' चित्त में निहारे प्रन प्रीति करनवारा है।
नन्दजू का प्यारा, जिन कंस को पछारा, वह वृन्दावनवारा, कृष्ण साहेब हमारा है।