सोमवार, 20 जुलाई 2009

भक्ति वेदांत स्वामी



जो भक्त मेरा अनन्य ध्यान करते हैं और सदैव मेरी उपासना करते हैं, मैं उन्हें अप्राप्त प्रदान करता हूँ और उनके प्राप्त की रक्षा करता हूँ। -श्रीमदभगवद्गीता


1965 में जब भक्ति वेदांत स्वामी अमरीका में कृष्ण भक्ति का प्रचार करने के लिए जलदूत नामक जहाज पर सवार हुए तो उनके पास चालीस रूपये की मामूली सी राशि थी और उनकी आयु थी 61 वर्ष, लेकिन भगवान की कृपा और गुरु श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर के आशीर्वाद अक्षय संपत्ति उनके साथ थी। सामान के नाम पर उनके पास माला-झोली और श्रीमद्भागवत की प्रतियों से भरा एक संदूक था। टिकेट का बंदोबस्त जहाज की मालकिन ने कर दिया था।

भक्ति वेदांत स्वामी का असली नाम अभय डे था, लेकिन उनके गुरु ने उन्हें अभय चरणारविन्द भक्ति वेदांत नाम दिया था। अंग्रेज़ी भाषा की जानकारी होने के कारण गुरु ने उन्हें पश्चिम देशों में जाकर कृष्ण भक्ति का प्रचार करने की आज्ञा दी। श्रील कृष्णदास कविराज ने कहा है, ‘जिसने भारतभूमि पर मनुष्य के रूप में जन्म लिया हो उसे (भक्ति द्वारा) अपना जीवन सफल बनाना चाहिए और परोपकार के लिए काम करना चाहिए।' भक्ति वेदांत स्वामी के मन में कहीं ये बात छुपी हुई थी। भक्ति वेदांत स्वामी कलकत्ता में रहा करते थे। उनका दवाइयों का कारोबार था लेकिन वे अपना जीवन लीला पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण के चरणों में अर्पित कर चुके थे। नतीजन कारोबार ठप्प होता गया। एक सच्चा भक्त बाधाओं को भगवान द्वारा ली जा रही परीक्षा या प्रेम समझता है। भक्ति वेदांत मानते थे कि जब भगवान व्यक्ति को अपनी शरण में लेते हैं तो सबसे पहले उसका धन हर लेते हैं। अन्य परेशानियाँ भी कम न थीं। उनका अपना परिवार उनकी यायावर और भक्तिमय प्रवृत्ति को पसंद नहीं करता था। एक बार जब उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि तुम्हें चाय या मुझमें से किसी एक को चुनना होगा, (वैष्णवमत में चाय निषिद्ध है)। जवाब मिला, तब तो मुझे अपने पति को छोड़ना पड़ेगा। धन की तंगी थी लेकिन भक्ति वेदांत ने ‘Back to Godhead' पत्रिका निकालना जारी रखा। आज यह पत्रिका हिन्दी समेत दुनिया की तीस से अधिक भाषाओँ में प्रकाशित हो रही है। वह अपना समय गीता उपदेश में और पत्रिका के प्रचार में लगाया करते थे। पत्रिका के प्रकाशन के सिलसिले में वह दिल्ली के चांदनी चौक में भी रहे। उस दौरान कड़कती ठण्ड में उनके पास गरम कपडों के नाम पर सिर्फ़ धोती और कुरता हुआ करता था। बाद में, काफ़ी समय तक वृन्दावन के श्रीराधा-दामोदर मन्दिर में रहकर उन्होंने श्रीमदभागवत के शुरुआती खंड लिखे।

अमरीका में उनकी राह आसान नहीं थी। उन्हें हिप्पिओं के मुहल्ले में रहना पड़ा जिनके दो शगल थे। एक, ड्रग्स और दूसरा संगीत। उनकी नज़र में नशा सबसे बड़ा आनंद था। भक्ति वेदांत जहाँ रहा करते उस कमरे के बाहर बच्चों और गुज़रती गाड़ियों का शोर होता रहता। प्रवचन के दौरान कभी कोई शराबी घुस आता तो कभी ड्रग्स के नशे में चूर लड़की जिसे अपने शरीर का भी होश न रहता। किसी ना किसी वजह से व्याख्यान देना दुष्कर काम होता था। अपने गुरुजी को एक पत्र में वे लिखते हैं,'मैं उन्हें कृष्ण-भक्ति कैसे समझाऊँ। मैं अत्यन्त अभागा, अयोग्य तथा परमपतित हूँ। अत:आप आशीर्वाद दें कि मैं उन्हें आश्वस्त कर सकूँ, क्योंकि मैं अपनी ओर से ऐसा करने में अक्षम हूँ।' भागवत में कहा गया है, ‘भगवान की भक्ति में लगे हुए भक्त को कभी जीवन की किसी अवस्था से डर नहीं लगता,उसके लिए स्वर्ग और नरक एक समान हैं।'फिर भक्ति वेदांत तो भगवान् के असाधारण भक्त थे। धीरे-धीरे उनकी व्याख्यान कक्षा में भीड़ बढ़ने लगी। वे जब मृदंग की थाप पर कीर्तन किया करते तो संगीत के शौकीन हिप्पी उनकी और खिंचने लगते। भक्ति वेदांत की कृष्ण चर्चा और भक्तिमय सान्निध्य में बुद्धिवादी और नास्तिक हिप्पिओं को जल्द समझ आ गया कि ड्रग्स नहीं बल्कि कृष्ण भक्ति का रस असली परम आनन्द है। वे उनके शिष्य बन गए। उनके रहते अब भक्ति वेदांत को भगवान् की सेवा और रसोई की चिंता नहीं थी। शिष्यों की संख्या बढ़ती गई, बिना किसी छल, बल और धन के। बड़ी-बड़ी शख्सियतें कृष्ण भक्ति की और उन्मुख होने लगीं। बीटल्स के सदस्य जोर्ज हेरिसन ने भक्तिवेदांत द्वारा टीकाबद्ध भगवद्गीता के पहले संस्करण का सारा खर्च उठाया। आज भगवद्गीता के लगभग संसार की सभी प्रमुख भाषाओँ में एक करोड़ से ज्यादा संस्करण छप चुके हैं। विश्वविद्यालयों में उनकी टीकाबद्ध भगवद्गीता सबसे प्रमाणिक मानी जाती है। उनके लिखे दुसरे महान ग्रन्थ भक्ति और ज्ञान दोनों की अद्भुत मिसाल हैं।

भक्ति वेदांत स्वामी ने पूरी दुनिया में कृष्ण भक्ति और वैदिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। उनकी भक्ति का तेज और प्रताप है कि आज हर तरफ़ हरे कृष्ण महामंत्र गूंजने लगा है। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ (इस्कोन)की स्थापना की जिसके दुनियाभर में चार सौ पचास से ज्यादा सेंटर हैं। उन्होंने अपने जीवन के अन्तिम बारह सालों में घूम-घूम कर लोगों के जीवन को कृष्ण भावनाभावित किया और भक्ति व प्रेम की रसधार बहाई। उन्होंने दुनिया के कोने-कोने में मंदिरों की स्थापना की,भक्ति को व्यवस्थित रूप दिया, चरित्र को उदात्त बनाने की शिक्षा दी और सबसे बढ़कर अपने गुरु श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर की आज्ञा का भली-भांति पालन किया।

आज किसी वियतनामी को शाकाहार पर चर्चा करते और श्यामवर्णी किसी अफ्रीकी कृष्ण भक्त को भावविभोर होकर श्रीमद्भागवत का प्रवचन देते हुए देखकर हमें कोई हैरानी नहीं होती और ऐसी अनूठी घटना को आम बनाने के पीछे किसी और का नहीं एसी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद का जप करता हुआ हाथ है।

6 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी जानकारी!!
    जै श्री कृ्ष्ण!

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  2. बहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्‍लाग जगत में स्‍वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्‍दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्‍दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्‍त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।

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