सोमवार, 24 अगस्त 2009

बिल्वमंगल


भगवान् श्री कृष्ण के अनेक अनन्य भक्त हुए हैं जिन्होंने अपने एकनिष्ठ प्रेम, समर्पण और भगवद ज्ञान से लोकमानस में भक्तिभाव का संचार किया। ७०० वर्ष पहले केरल में ऐसे ही एक असाधारण भक्त बिल्वमंगल हुए। कहा जाता है कि उन्हें एक वेश्या चिंतामणि से प्रेम हो गया था। एक बार उन पर उससे मिलन की उत्कंठा इतनी हावी हो गई कि पिता का क्रिया कर्म करते ही वे उससे मिलने दौड़ पड़े। तेज वर्षा में भी वे आगे बढ़ते रहे। वासना में डूबे हुए बिल्वमंगल ने तैरते शव पर चढ़ कर नदी को पार किया और दीवार पर लटकते साँप को पकड़कर अपनी प्रेयसी के पास पहुँच गये। जब चिंतामणि ने भीगे हुए बिल्वमंगल के हृदय की कामाग्नि देखी तो सलाह दी, "तुम माँस और हड्डी से बने इस तन की बजाय अचिंत्य भगवान श्रीकृष्ण से प्रेम करते तो तुम्हे पूर्ण और शाश्वत सुख मिल जाता।" बिल्वमंगल की चेतना लौटी और वे तुरंत वृंदावन चल पड़े। उन्होंने श्रीकृष्ण प्रेम की सुन्दर व मधुर कृति ‘श्रीकृष्ण कर्णामृतं’ के प्रथम श्लोक का आरम्भ आभार स्वरुप ‘चिंतामणि जयति.....’ से किया है। । श्री राधा-कृष्ण की माधुर्य पूर्ण लीला में प्रवेश के बाद उनका नाम लीला शुक हो गया। वे उन्मत्त होकर गोविन्द लीलागान करते थे। वे वृन्दावन में ब्रह्म कुंड के पास कुटिया में रहने लगे। भगवान् बालक रूप में उनके साथ खेला करते। लीला शुक उन्हें लाड़ से उन्नी बुलाया करते थे। उन्होंने ही माधुर्य लीला में श्रीमती राधारानी की सर्वोच्चता स्थापित की। उन्हीं के आधार पर ही, बाद में छह गोस्वामियों आदि संतों ने श्री राधा-कृष्ण लीला रूप को आधार बनाया और श्रीराधा भाव का विस्तार किया । बिल्वमंगल अर्थात लीला शुक की समाधि वृंदावन के गोपीनाथ बाज़ार में है।
लीला शुक द्वारा रचित ‘श्रीकृष्ण कर्णामृतं’ तीन अध्यायों में निबद्ध है और इसका एक-एक श्लोक कांतिमय मोती के समान है। इसी मधुर कृति में से प्रस्तुत है- एक उज्जवल मोती जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति बहुत भावपूर्ण एवं रसपूर्ण ढंग से की गई है। पहले श्लोक है, उसके बाद इसका अर्थ दिया गया है। श्लोक रूपी मोती को ओजस्वी स्वर में पिरोया है, संगीत मार्तंड जसराज ने।

कस्तूरी तिलकं ललाट पटले वक्ष: स्थले कौस्तुभं ।
नासाग्रे वरमौक्तिकं करतले वेणु: करे कंकणं॥
सर्वांगे हरि चन्दनं सुललितं कंठे च मुक्तावली।
गोपस्त्रीपरिवेष्टितो विजयते गोपाल चूडामणि: ॥

'हे श्रीकृष्ण! आपके मस्तक पर कस्तूरी तिलक सुशोभित है। आपके वक्ष पर देदीप्यमान कौस्तुभ मणि विराजित है। आपने नाक में सुंदर मोती पहना हुआ है। आपके हाथ में बांसुरी है और कलाई में आपने कंगन धारण किया हुआ है। हे हरि! आपकी सम्पूर्ण देह पर सुगन्धित चंदन लगा हुआ है और सुंदर कंठ मुक्ताहार से विभूषित है। आप सेवारत गोपियों के मुक्ति प्रदाता हैं। हे ईश्वर! आपकी जय हो। आप सर्वसौंदर्यपूर्ण हैं।'

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सोमवार, 17 अगस्त 2009

जय जगन्नाथ


जगन्नाथजी जगत के स्वामी हैं और सभी प्राणियों पर कृपा करनेवाले हैं। वे कृष्ण के लीलामय स्वरुप हैं और श्यामवर्णी हैं। जगन्नाथजी का उल्लेख स्कन्दपुराण, ब्रह्मपुराण और अन्य पुराणों में विस्तार से दिया गया है।
कई बार भक्तों को जगन्नाथजी का आदिरूप विचित्र लगता है। वे सोचते हैं कि न तो उनके नेत्र, उनका मुखमंडल पूर्ण हैं और न ही उनके हाथ और पैर अंग विकसित हैं। उनकी पूरी की पूरी छवि अधूरी सी प्रतीत होती है। गर्गसंहिता के अनुसार, कलियुग के आरम्भ में पांडु वंश के राजा उदयन के पुत्र इन्द्रद्युम्न को स्वप्न में नील पर्वत पर पूजित भगवान् नीलमाधव के विग्रह (श्री मूर्ति) के दर्शन हुए। राजा भगवान् नीलमाधव के सौन्दर्य से अभिभूत हो गए। जागने पर उन्होंने निश्चय किया कि वे वैसे ही सुंदर विग्रह अपनी राजधानी में प्रतिष्ठित करवाएंगे। उन्होंने अनेक योग्य ब्राह्मणों को भगवान् नीलमाधव के विग्रह ढूंढने के लिए भेजा लेकिन विद्यापति नामक ब्राह्मण को ही सफलता मिली। जब राजा दल-बल के साथ दर्शन करने पहुंचे तो विग्रह अंतर्धान हो गए। राजा की निराशा और व्याकुलता देखकर स्वप्न में उन्हें आदेश मिला कि तुम्हें समुद्र में बहता नीम का तना मिलेगा जिससे तुम भगवान् जगन्नाथ, उनकी बहन सुभद्रा और भाई बलराम के विग्रहों का निर्माण करवाओ। राजा ने विग्रह निर्माण के लिए दक्ष शिल्पकारों को बुलवाया लेकिन उस रहस्यमयी लकड़ी के सामने उनके औजार ख़राब हो गए। तभी वहां एक वृद्ध शिल्पी आया जिसने राजा के सम्मुख प्रस्ताव रखा कि विग्रहों का निर्माण अवश्य कर देगा लेकिन वह यह कार्य बंद कमरे में ही करेगा। जब तक मैं न कहूँ कोई कमरे में प्रवेश नहीं करेगा। यदि किसी ने कमरे में प्रवेश किया तो मैं कार्य बंद कर दूँगा। राजा शिल्पी की बात मान गया। १५ दिन बीत गए। राजा को चिंता हुई कि शिल्पी ने ना कुछ खाया है ना पीया है, कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया। चिंतित राजा ने कमरा खुलवाया तो शिल्पी अदृश्य हो गया और विग्रह अधूरे बने हुए थे। राजा सोच में पड़ गए कि भगवान् का ये रूप तो प्रामाणिक नहीं हैं, इसकी स्थापना कैसे होगी? तभी भगवद् इच्छा से नारद प्रकट हुए। उन्होंने जगन्नाथजी सहित उनकी बहन सुभद्रा और भाई बलराम के विग्रहों को इसी अपूर्णता के साथ स्थापित करने का निर्देश दिया। नारद ने कहा, 'भगवान् का ये लीलामय और प्रामाणिक रूप है और इसे भगवान् ने द्वापरयुग में द्वारकापुरी में प्रकट किया था। एक बार भगवान् की पत्नियों को अपने स्वामी के गोपियों के प्रति प्रेम के कारण यह शंका हुई की लीलापुरुषोत्तम की उनके प्रति आसक्ति नहीं हैं। उनकी शंका जानकर बलराम की माता रोहिणी ने उन्हें समझाया की श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों के प्रेम का रहस्य वह जानती हैं और यह रहस्य बंद कक्ष में ही बताया जा सकता है। सुभद्रा को आदेश हुआ कि वह द्वार पर रहे और किसी को, चाहे कृष्ण और बलराम ही क्यों ना हों, अन्दर ना आने दे ना किसी को इस रहस्य को सुनने दे। उसी समय कृष्ण और बलराम आ गए और उत्सुकतावश तीनों माता रोहिणी के मुख से गोपी प्रेम का रहस्य सुनने लगे। इसे सुनकर वे विस्मित हो गए। उनके नेत्र खुले के खुले रह गए और हाथ-पैर शरीर में समा गए।' नारद ने कहा, 'राजन, अब तुम्हारे प्रयास से भगवान् के इसी रूप के दर्शन समस्त जगत करेगा।' जगन्नाथजी, सुभद्रा और बलराम के स्वरूप के अधूरेपन का यही कारण है। नारद मुनि से ही राजा को ज्ञात हुआ कि वह वृद्ध शिल्पी कोई और नहीं बल्कि देवशिल्पी विश्वकर्मा थे। राजा इन्द्रद्युम्न ने पुरी में एक विशाल मन्दिर बनवा कर जगन्नाथजी, सुभद्रा और बलराम के विग्रह स्थापित करवाए।
भगवान् जगन्नाथ का वर्तमान मन्दिर कलिंग शैली में बना हुआ है जिसके शिखर पर नीलचक्र विराजित है। इसका निर्माण गंग वंश के सम्राट अनंगभीम तृतीय ने करवाया था। मन्दिर के गर्भ गृह में बनी रत्न वेदी पर जगन्नाथजी, सुभद्रा और बलराम के साथ सुदर्शन चक्र, माधब, श्रीदेवी, भूदेवी विराजमान हैं। मन्दिर परिसर में भगवान् के भोग के लिए एक विशाल रसोई बनी हुई है। कहा जाता है कि श्रीलक्ष्मीजी रसोई में स्वयं भोग तैयार करती हैं।

जय जगन्नाथ !

सोमवार, 10 अगस्त 2009

गोपीगीत


श्रीमदभागवतम भगवान श्रीकृष्ण का वांग्मय स्वरुप है। इसीलिए इसके बारह स्कंध उनकी देह के बारह अंग के समान हैं। उनमें से दसवां स्कंध इस देह रुपी महापुराण का हृदय है। इस स्कंध के पाँच अध्याय देह के पञ्च तत्त्व हैं और इन पाँच तत्त्वों में गोपी गीत सबसे महत्वपूर्ण तत्त्व है। दशम स्कंध के २९ से लेकर ३३ तक के इन पाँचों अध्यायों को रासपंचाध्यायी कहा जाता है। 'रास' शब्द का अर्थ है-रस, और ये रस भगवान् कृष्ण स्वयं हैं, 'रसो वै स:'। रासपंचाध्यायी में वंशी का सुर, गोपियों का मिलन, रमण, भगवान् का अंतर्धान, प्राकट्य, रास नृत्य, जलकेलि और वनविहार का चित्रण है। इनमें भगवान् कृष्ण की परम अन्तरंग लीला, निजस्वरूप भूता गोपिकाओं और अल्हादिनीशक्ति श्रीराधाजी के साथ होनेवाली भगवान् की दिव्यातिदिव्य क्रीड़ा भी प्रकट हुई है।
गोपी गीत श्रीमदभागवतम के दसवें स्कंध के रासपंचाध्यायी का ३१ वां अध्याय है। इसमें १९ श्लोक हैं। रास लीला के समय गोपियों को मान हो जाता है। भगवान् उनका मान भंग करने के लिए अंतर्धान हो जाते हैं। उन्हें न पाकर गोपियाँ व्याकुल हो जाती हैं। वे आर्त्त स्वर में पुकारती हैं, 'व्रजवासियों के दुःख दूर करने वाले वीरशिरोमणि श्यामसुन्दर! तुम्हारी मंद-मंद मुस्कान की एक उज्जवल रेखा ही तुम्हारे प्रेमीजनों के सारे मान मद को चूर-चूर कर देने के लिए पर्याप्त है। हमारे प्रियसखा! हमसे रूठो मत, प्रेम करो। हम तो तुम्हारी दासी हैं, तुम्हारे चरणों पर निछावर हैं। हम अबलाओं को अपना वह परम सुंदर साँवरा मुखपंकज दिखाओ।' उनकी देह, मन और आत्मा भगवान् के दर्शन की स्मृति में डूब जाते हैं। वे यमुना के तट पर आ जाती हैं और प्रेम में अभिभूत होकर भगवान् के दिव्य रूप और लीलाओं का गुणगान करने लगती हैं। यही विरहगान गोपी गीत है। इसमें प्रेम के अश्रु, मिलन की प्यास, दर्शन की उत्कंठा और स्मृतियों का रूदन है। भगवद प्रेम सम्बन्ध में गोपियों का प्रेम सबसे निर्मल, सर्वोच्च और अतुलनीय माना गया है।


गोप्य ऊचुः
जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥1॥
शरदुदाशये साधुजातसत्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा ।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥2॥
विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसाद्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात् ।
वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥3॥
न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् ।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये सख उदेयिवान्सात्वतां कुले ॥4॥
विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् ।
करसरोरुहं कान्त कामदं शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम् ॥5॥
व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां निजजनस्मयध्वंसनस्मित ।
भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो जलरुहाननं चारु दर्शय ॥6॥
प्रणतदेहिनांपापकर्शनं तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम् ।
फणिफणार्पितं ते पदांबुजं कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥7॥
गिरा वल्गुवाक्यया बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण ।
वीर मुह्यतीरधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः ॥8॥
तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।
श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥9॥
प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं विहरणं च ते ध्यानमङ्गलम् ।
रहसि संविदो या हृदिस्पृशः कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥10॥
चलसि यद्व्रजाच्चारयन्पशून् नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम् ।
शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः कलिलतां मनः कान्त गच्छति ॥11॥
दिनपरिक्षये नीलकुन्तलैर्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम् ।
घनरजस्वलं दर्शयन्मुहुर्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ॥12॥
प्रणतकामदं पद्मजार्चितं धरणिमण्डनं ध्येयमापदि ।
चरणपङ्कजं शंतमं च ते रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन् ॥13॥
सुरतवर्धनं शोकनाशनं स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम् ।
इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेऽधरामृतम् ॥14॥
अटति यद्भवानह्नि काननं त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् ।
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम् ॥15॥
पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवानतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः ।
गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥16॥
रहसि संविदं हृच्छयोदयं प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम् ।
बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः ॥17॥
व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम् ।
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् ॥18॥
यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेष भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु ।
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित् कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥19॥







Gopi Geet - Mridul...

सोमवार, 3 अगस्त 2009

पवनसुत हनुमान

भगवान की कृपा से मुझे हनुमानजी के अनेक स्वरूपों के दर्शन करने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ है। इन विविध रूपों में कहीं तो पवनसुत स्वप्रकटित शिलाकार में हैं तो कहीं संगमरमर में उकरी छवि के रूप में, कहीं वे मोटे हनुमान जी बनकर प्रतिष्ठित हैं तो कहीं एक ही विराट शिलाखंड के तौर पर, जैसे कि दिल्ली के राव तुलाराम मार्ग पर। उड़ीसा में बजरंगी के अति सुड्डोल और सुघर रूप के दर्शन होते हैं। लेकिन मेरे मन में उनकी एक छवि बहुत गहरी अंकित है, और वह है उनका श्याम रूप। कुछ वर्ष पहले, जनवरी की ठिठुरती शाम में, वृन्दावन के श्री रंगजी के मन्दिर के पीछे की और बने द्वार पर प्रहरी की ड्यूटी निभा रहे हनुमानजी के दर्शन किए तो बस मैं उन्हें देखता ही रह गया। ठण्ड की वजह से उन्होंने रजाई ओढ़ रखी थी और शायद कृष्ण प्रेम में उनकी देह भी श्याम रंग में रंग गई थी। उनका रूप अनुपम था, मुख मंडल पर दीनता और प्रेम विराजमान था। मेरे मन के मन्दिर में उनका यह रूप अभी भी वैसा ही बसा हुआ है।
मंगलता, निर्भयता, भक्ति और प्रेम की धारा बहाने वाले अन्जनिनंदन हनुमानजी की स्तुति एवं स्मृति रूप में, आइये सुनें राजन मिश्रा-साजन मिश्रा के स्वर में हनुमान चालीसा, जो सांवले हनुमानजी की छवि के समान निराली है।
इसके बाद हरिहरन के स्वर में पारम्परिक धुन में हनुमान चालीसा है।
00. HANUMAAN CHALI...