सोमवार, 17 अगस्त 2009

जय जगन्नाथ


जगन्नाथजी जगत के स्वामी हैं और सभी प्राणियों पर कृपा करनेवाले हैं। वे कृष्ण के लीलामय स्वरुप हैं और श्यामवर्णी हैं। जगन्नाथजी का उल्लेख स्कन्दपुराण, ब्रह्मपुराण और अन्य पुराणों में विस्तार से दिया गया है।
कई बार भक्तों को जगन्नाथजी का आदिरूप विचित्र लगता है। वे सोचते हैं कि न तो उनके नेत्र, उनका मुखमंडल पूर्ण हैं और न ही उनके हाथ और पैर अंग विकसित हैं। उनकी पूरी की पूरी छवि अधूरी सी प्रतीत होती है। गर्गसंहिता के अनुसार, कलियुग के आरम्भ में पांडु वंश के राजा उदयन के पुत्र इन्द्रद्युम्न को स्वप्न में नील पर्वत पर पूजित भगवान् नीलमाधव के विग्रह (श्री मूर्ति) के दर्शन हुए। राजा भगवान् नीलमाधव के सौन्दर्य से अभिभूत हो गए। जागने पर उन्होंने निश्चय किया कि वे वैसे ही सुंदर विग्रह अपनी राजधानी में प्रतिष्ठित करवाएंगे। उन्होंने अनेक योग्य ब्राह्मणों को भगवान् नीलमाधव के विग्रह ढूंढने के लिए भेजा लेकिन विद्यापति नामक ब्राह्मण को ही सफलता मिली। जब राजा दल-बल के साथ दर्शन करने पहुंचे तो विग्रह अंतर्धान हो गए। राजा की निराशा और व्याकुलता देखकर स्वप्न में उन्हें आदेश मिला कि तुम्हें समुद्र में बहता नीम का तना मिलेगा जिससे तुम भगवान् जगन्नाथ, उनकी बहन सुभद्रा और भाई बलराम के विग्रहों का निर्माण करवाओ। राजा ने विग्रह निर्माण के लिए दक्ष शिल्पकारों को बुलवाया लेकिन उस रहस्यमयी लकड़ी के सामने उनके औजार ख़राब हो गए। तभी वहां एक वृद्ध शिल्पी आया जिसने राजा के सम्मुख प्रस्ताव रखा कि विग्रहों का निर्माण अवश्य कर देगा लेकिन वह यह कार्य बंद कमरे में ही करेगा। जब तक मैं न कहूँ कोई कमरे में प्रवेश नहीं करेगा। यदि किसी ने कमरे में प्रवेश किया तो मैं कार्य बंद कर दूँगा। राजा शिल्पी की बात मान गया। १५ दिन बीत गए। राजा को चिंता हुई कि शिल्पी ने ना कुछ खाया है ना पीया है, कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया। चिंतित राजा ने कमरा खुलवाया तो शिल्पी अदृश्य हो गया और विग्रह अधूरे बने हुए थे। राजा सोच में पड़ गए कि भगवान् का ये रूप तो प्रामाणिक नहीं हैं, इसकी स्थापना कैसे होगी? तभी भगवद् इच्छा से नारद प्रकट हुए। उन्होंने जगन्नाथजी सहित उनकी बहन सुभद्रा और भाई बलराम के विग्रहों को इसी अपूर्णता के साथ स्थापित करने का निर्देश दिया। नारद ने कहा, 'भगवान् का ये लीलामय और प्रामाणिक रूप है और इसे भगवान् ने द्वापरयुग में द्वारकापुरी में प्रकट किया था। एक बार भगवान् की पत्नियों को अपने स्वामी के गोपियों के प्रति प्रेम के कारण यह शंका हुई की लीलापुरुषोत्तम की उनके प्रति आसक्ति नहीं हैं। उनकी शंका जानकर बलराम की माता रोहिणी ने उन्हें समझाया की श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों के प्रेम का रहस्य वह जानती हैं और यह रहस्य बंद कक्ष में ही बताया जा सकता है। सुभद्रा को आदेश हुआ कि वह द्वार पर रहे और किसी को, चाहे कृष्ण और बलराम ही क्यों ना हों, अन्दर ना आने दे ना किसी को इस रहस्य को सुनने दे। उसी समय कृष्ण और बलराम आ गए और उत्सुकतावश तीनों माता रोहिणी के मुख से गोपी प्रेम का रहस्य सुनने लगे। इसे सुनकर वे विस्मित हो गए। उनके नेत्र खुले के खुले रह गए और हाथ-पैर शरीर में समा गए।' नारद ने कहा, 'राजन, अब तुम्हारे प्रयास से भगवान् के इसी रूप के दर्शन समस्त जगत करेगा।' जगन्नाथजी, सुभद्रा और बलराम के स्वरूप के अधूरेपन का यही कारण है। नारद मुनि से ही राजा को ज्ञात हुआ कि वह वृद्ध शिल्पी कोई और नहीं बल्कि देवशिल्पी विश्वकर्मा थे। राजा इन्द्रद्युम्न ने पुरी में एक विशाल मन्दिर बनवा कर जगन्नाथजी, सुभद्रा और बलराम के विग्रह स्थापित करवाए।
भगवान् जगन्नाथ का वर्तमान मन्दिर कलिंग शैली में बना हुआ है जिसके शिखर पर नीलचक्र विराजित है। इसका निर्माण गंग वंश के सम्राट अनंगभीम तृतीय ने करवाया था। मन्दिर के गर्भ गृह में बनी रत्न वेदी पर जगन्नाथजी, सुभद्रा और बलराम के साथ सुदर्शन चक्र, माधब, श्रीदेवी, भूदेवी विराजमान हैं। मन्दिर परिसर में भगवान् के भोग के लिए एक विशाल रसोई बनी हुई है। कहा जाता है कि श्रीलक्ष्मीजी रसोई में स्वयं भोग तैयार करती हैं।

जय जगन्नाथ !

3 टिप्‍पणियां: